एंटीबायोटिक्स के बारे में अपने कुछ भ्रम दूर कर लें
डॉक्टर अनिल चतुर्वेदी
अक्सर कहा जाता है कि दर्द का हद से गुजर जाना ही दवा बन जाता है मगर जब स्थिति उलटी हो और दवा ही दर्द का कारण बन जाए तो क्या करें? एलोपैथी चिकित्सा जगत में ये स्थिति बन रही है दवाओं के हद से ज्यादा इस्तेमाल के कारण। एंटीबायोटिक दवाइयों के अंधाधुंध इस्तेमाल ने महामारी का रूप धारण कर लिया है। इसके कारण न केवल ये दवाएं बेअसर होने लगी हैं बल्कि ये शरीर पर दुष्प्रभाव भी पैदा कर रही हैं। जीवाणुओं यानी बैक्टीरिया से होने वाली बीमारियों से निजात दिलाने वाली एंटीबायोटिक दवाइयों का अनुचित एवं बेवजह इस्तेमाल पूरी दुनिया में बड़े पैमाने पर हो रहा है, लेकिन दक्षिण पूर्व एशिया में और खासकर भारत में इन दवाइयों के बहुत अधिक इस्तेमाल के कारण स्वास्थ्य संबंधी अनेकानेक समस्याओं का जन्म होने लगा है।
एंटीबायोटिक से हो सकती है ये बीमारियां
एंटीबायोटिक दवाइयों के अधिक इस्तेमाल से मुंह में छाले, दस्त, पीलिया और पूरे शरीर में खुजली जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। एंटीबायोटिक के लगातार इस्तेमाल से होने वाली समस्या सूडोमैम्ब्रेनस कोलाइटिस भी कहलाती हैं। एंटीबायोटिक के बहुत अधिक इस्तेमाल से ड्रग फीवर भी हो सकता है। चिकित्सकों के पास ऐसे मरीज आते हैं जिन्होंने पहले ही एंटीबायोटिक दवाइयों का सेवन किया होता है लेकिन यह देखा गया है कि जब ये मरीज एंटीबायोटिक दवाइयां बंद कर देते हैं तो उनकी बीमारी दूर हो जाती है। करीब 30 से 40 फीसदी मरीज तो एंटीबायोटिक बंद करने के बाद ही ठीक हो जाते हैं।
खुद से दवा लेते हैं तो भुगतेंगे
आजकल लोग हर किसी तकलीफ में चिकित्सक से सलाह किए बगैर अपने आप ही या किसी केमिस्ट से पूछकर एंटीबायोटिक दवाइयों का सेवन करने लगते हैं। इससे जीवाणुओं में इन दवाइयों के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है और ये दवाइयां बेअसर हो जाती हैं। कई मरीज तो तीन चार एंटीबायोटिक दवाइयों का सेवन एक साथ करते हैं।
इन बीमारियों में तो न ही खाएं एंटीबायोटिक
इसी प्रकार कई डॉक्टर वायरल या फंगल संक्रमण वाली बीमारियों में भी मरीजों को एंटीबायोटिक लिख देते हैं जबकि इन बीमारियों में एंटीबायोटिक की कोई भूमिका नहीं होती है। आम तौर पर वायरल बुखार पौष्टिक आहार लेने एवं आराम करने पर अपने आप ठीक हो जाता है। मुश्किल ये है कि आजकल लोगों की जिंदगी इतनी व्यस्त हो गई है वो दवा लेकर तुरंत ठीक होना और अपने काम काज पर लौटना चाहते हैं। कई बार तो मरीज एंटीबायोटिक लिखने के लिए डॉक्टर पर दबाव भी बनाते हैं।
दवा कम या ज्यादा शक्तिशाली नहीं होती
कई मरीजों की भ्रांति है कि उन्हें अधिक शक्तिशाली एंटीबायोटिक दवा से ही फायदा होगा लेकिन दरअसल कोई दवाई ज्यादा या कम शक्तिशाली नहीं होती है। बीमारी की जरूरत के अनुसार ही दवा की मात्रा लेने से फायदा होगा नहीं तो नुकसान ही होगा।
कुछ लोगों को ये भी भ्रम
कई लोगों को भ्रम होता है कि हर एंटीबायोटिक दवा से नुकसान ही होता है इसलिए वो जरूरी होने पर भी एंटीबायोटिक नहीं खाना चाहते। ऐसे मरीजों को जानना चाहिए कि जरूरत पड़ने पर दवा खानी ही होगी अन्यथा बैक्टीरिया का संक्रमण जानलेवा हो सकता है। ये भी जानें कि बैक्टीरिया के संक्रमण में अगर एंटीबायोटिक न ली जाए तो संक्रमण पूरे शरीर में फैलकर सेप्टिसीमिया का रूप ले सकता है। ये अगर पूरे शरीर में फैल जाए तो किडनी एवं अन्य जरूरी अंग खराब हो सकते हैं। दरअसल संक्रमण तभी बढ़ता है जब जीवाणु शरीर की रोग प्रतिरोधक प्रणाली को पराजित कर देते हैं, ऐसे में इन जीवाणुओं को मारने के लिए एंटीबायोटिक का सेवन जरूरी होता है।
मरीज की उम्र और वजन के हिसाब से हो दवा की मात्रा
कई बार ये भी देखा जाता है कि चिकित्सक मरीज को एंटीबायोटिक दवाई की कम खुराक लेने की सलाह देते हैं, लेकिन ये समझने की जरूरत है कि ऐसा करने करने से कोई लाभ नहीं होता। दरअसल दवा की खुराक मरीज की उम्र और शारीरिक वजन के हिसाब से होनी चाहिए। मिसाल के तौर पर साधारण तौर पर उपभोग की जाने वाली दवाएं जैसे एम्पीसिलीन, एमौक्सीसिलीन की 500 एमजी की खुराक 50 किलोग्राम वजन के मरीज को रोजाना तीन से चार बार देनी चाहिए, लेकिन ज्यादातर चिकित्सक 250 एमजी की खुराक रोजाना तीन बार लेने की सलाह दे देते हैं जबकि ये बच्चों की खुराक है। कम खुराक देने पर ये जीवाणुओं पर तो कारगर नहीं ही होते उल्टा जीवाणु इनके खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं और बाद में उनपर ज्यादा खुराक का भी असर नहीं होता।
दवा जितने दिन तक कही जाए उतना लें
डॉक्टर जितने दिन तक दवा लेने को कहें उतने दिन का कोर्स जरूर पूरा करना चाहिए। आमतौर पर सात दिन तक एंटीबायोटिक दवा लेनी चाहिए। हालांकि कुछ बीमारियों में तीन से पांच दिन तक भी खुराक दी जाती है। इसी प्रकार टायफायड और निमोनिया जैसी बीमारियों में तो दो हफ्ते तक भी दवा खानी पड़ सकती है। अकसर होता ये है कि मरीज बीमारी के लक्षणों के ठीक होते ही दवा बंद कर देता है लेकिन ऐसी स्थिति में कुछ समय के बाद यह दवा उस मरीज पर असर करना बंद कर देती है और एक ही प्रकार का संक्रमण दोबारा होने पर दूसरी दवा का इस्तेमाल करना पड़ता है।
मल्टी ड्रग रेजिस्टेंस
आजकल कई जीवाणुओं में मल्टी ड्रग रेजिस्टेंस विकसित हो गया है यानी इन जीवाणुओं पर कई दवाएं बेअसर हो गई हैं। आम तौर पर तपेदिक यानी टीबी की दवा पर 30 से 50 रुपये रोज का खर्च होता है मगर मल्टी ड्रग रेजिस्टेंज के कारण एंटीबायोटिक दवाओं पर यही खर्च दस गुणा तक हो जाता है। दूसरी बात टीबी की सामान्य स्थिति में दवा एक साल तक लेनी पड़ती है मगर मल्टी ड्रग रेजिस्टेंस के कारण ये अवधि कई मामलों में डेढ़ से दो साल तक हो जाती है।
खून की जांच कर दें दवा
ऐसी स्थिति आने पर ये बेहतर है कि चिकित्सक मरीज के ब्लड कल्चर जांच कराके ये पता लगाएं कि उसे किस किस्म का बैक्टीरियल संक्रमण है और उसे किस एंटीबायोटिक से सटीक लाभ मिलेगा।
नई दवाएं ज्यादा कारगर
आजकल कुछ ऐसी एंटीबायोटिक दवाएं विकसित हुई हैं जिन्हें कम ही बार खाने की जरूरत पड़ती है मगर ये ज्यादा असरदार होती हैं। उदाहरण के लिए, गले के निमोनिया के लिए विकसित एजोब्रोमाइसिन की 500 एमजी की गोली केवल नाश्ते के समय लेनी होती है। यह दवा परंपरागत एंटीबायोटिक दवाइयों की तुलना में सुरक्षित एवं हानिरहित है।
(लेखक दिल्ली के जाने माने फीजिशियन और जीवनशैली रोग विशेषज्ञ हैं। ये आलेख उनकी किताब फैमिली हेल्थ गाइड से साभार लिया गया है। प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित ये किताब hindibooks.org से मंगवाई जा सकती है)
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